भारतीय अर्थव्यवस्था 1950-1990 (2019-20 के लिए) - नोट्स

CBSE कक्षा 11 अर्थशास्त्र
पाठ - 2 भारतीय अर्थव्यवस्था 1950-1990
पुनरावृत्ति नोट्स

स्मरणीय बिन्दु-
  • पंचवर्षीय योजनास्वतंत्रता के उपरांत भारतीय नेताओं द्वारा ऐसे आर्थिक तंत्र को स्वीकार किया गया जो कुछ लोगों की बजाय सबके हितों को प्रोत्साहित करें और बेहतर बनाए। स्वतंत्र भारत के नेताओं ने देखा कि पूरे विश्व में दो प्रकार के आर्थिक तंत्र - समाजवाद और पूँजीवाद व्याप्त है। उन्होंने पूँजीवाद और समाज दोनों के सर्वश्रेष्ठ लक्षणों को सम्मिलित कर एक नया आर्थिक तंत्र-मिश्रित अर्थव्यवस्था विकसित किया।
    प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में 1950 में आयोजन का गठन हुआ, जिसके माध्यम से सरकार अर्थव्यवस्था के लिए योजना का निर्माण करती है तथा निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करती है। योजना आयोग के गठन के साथ ही भारत में पंचवर्षीय योजनाओं का युग प्रारंभ हुआ।
  • पंचवर्षीय योजना के सामान्य उद्देश्य
    प्रत्येक पंचवर्षीय योजना के लिए कुछ विशेष रणनीति तथा लक्ष्य होते हैं जिन्हें पूरा करना होता है। पंचवर्षीय योजनाओं के लक्ष्य निम्न है:
    1. उच्च संवृद्धि दर
    2. अर्थव्यवस्था का आधुनिकीकरण
    3. आत्मनिर्भरता
    4. सामाजिक समानता
  • संवृद्धि- संवृद्धि से तात्पर्य देश की उत्पादन क्षमता में वृद्धि से है जैसे कि देश में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं में वृद्धि। अर्थात् उत्पादक पूँजी या सहायक सेवाओं जैसे परिवहन और बैंकिग सेवाओं का बृहद स्टाक या उत्पादक पूँजी और सेवाओं की क्षमता में वृद्धि। सकल घरेलू उत्पाद किसी राष्ट्र की आर्थिक संवृद्धि का संकेतक है। GDP एक वर्ष में उत्पादित कुल वस्तुओं और सेवाओं के बाजार मूल्य को कहते हैं। इसे चाकलेट या केक की टुकड़े के उदाहरण से समझ सकते है कि जैसे-जैसे चाकलेट या केक का आकार बढ़ता जायेगा और भी अधिक लोग इसका आनन्द ले सकेगे। प्रथम पंचवर्षीय योजना के शब्दों में अगर भारत के लोगों का जीवन और बेहतर और समृद्ध बनाना है तो वस्तुओं और सेवाओं का अधिक उत्पादन आवश्यक है।
    GDP में अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में कृषि, सेवा और औद्योगिक क्षेत्र को शामिल किया जाता है। अर्थव्यवस्था की संरचना में ये उपर्युक्त तीन क्षेत्र सम्मिलित है। अलग-अलग देशों में अलग-अलग क्षेत्रों का अलग-अलग योगदान होता है कुछ में सेवा क्षेत्र और कुछ में कृषि क्षेत्र सर्वाधिक योगदान करता है।
  • आधुनिकीकरण- वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में वृद्धि के लिए उत्पादकों द्वारा नयी तकनीकी को स्वीकार किया जाता है। नयी तकनीक का प्रयोग ही आधुनिकीकरण है जैसे कि फसल उत्पादन में वृद्धि के लिए पुरानी बीजों के बजाय नयी उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग इसका अर्थ केवल नयी तकनीक के प्रयोग से ही नहीं जुड़ा है बल्कि राष्ट्र की वैचारिक और सामाजिक मनोस्थिति में परिवर्तन भी है जैसे महिलाओं को समान अधिकार दिया जाना। परम्परागत समाज में महिलायें केवल घरेलू कार्य करतीं थीं जबकि आधुनिक समाज में उन्हें अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में कार्य करने का अवसर प्राप्त होने लगा है। आधुनिकीकरण समाज को सभ्य और सम्पन्न बनाता है।
  • आत्म निर्भरता- राष्ट्र की आर्थिक संवृद्धि और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को तीव्र करने के दो रास्ते है-
    1. अन्य देशों से आयातित संसाधनों का उपयोग
    2. स्वयं के साधनों का उपयोग
प्रथम सात पंचवर्षीय योजनाओं में आत्म निर्भरता पर अधिक बल दिया गया और अन्य राष्ट्रों से ऐसी वस्तुओं और सेवाओं जिनका स्वयं उत्पादन हो सकता है उनका आयात हतोत्साहित किया गया। इस नीति में मुख्यतः खाद्यान उत्पादन में हमारी अन्य राष्ट्रों पर निर्भरता को कम किया और यह आवश्यक थी। एक नये स्वतंत्र देश के लिए आत्मनिर्भरता आवश्यक होती है क्योंकि इस बात का भय रहता है कि अन्य राष्ट्रों पर हमारी निर्भरता हमारी सम्प्रभुता को प्रभावित कर सकती है।
  • समानता- समानता के अभाव में उपरोक्त तीनों उद्देश्य अपने आप में किसी राष्ट्र के लोगों के जीवनस्तर में वृद्धि करने सक्षम नहीं हैं। यदि आधुनिकीकरण संवृद्धि और आत्मनिर्भरता राष्ट्र के गरीब तबके तक नहीं पहुँचती है तो आर्थिक संवृद्धि का लाभ केवल धनी व्यक्तियों को ही प्राप्त होगा। अतः संवृद्धि आत्मनिर्भरता और आधुनिकीकरण में भागीदारी के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक भारतीय को उसकी प्राथमिक आवश्यकतायें जैसे कि भोजन, आवास, कपड़ा, स्वास्थ्य एवं शिक्षा की सुविधा प्राप्त हो, जिससे कि आर्थिक सम्पन्नता और सम्पति के वितरण में असमानता में कमी आये।
  • कृषि- सन् 1951 में देश की राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र का अंशदान 59 प्रतिशत था। भारत की लगभग तीन-चौथाई जनसंख्या के लिए कृषि ही आजीविका का साधन थी। औपनिवेशिक शासन काल में कृषि क्षेत्र में न तो संवृद्धि हुई और न ही समता रह गई। अतः नियोजकों ने कृषि क्षेत्र को सर्वोच्च प्राथमिकता दी।
  • कृषि की भूमिका
    1. राष्ट्रीय आय में हिस्सा
    2. रोजगार में हिस्सा
    3. औद्योगिक विकास के लिए आधार
    4. विदेशी व्यापार की महत्ता
    5. घरेलू उपभोग में महत्वपूर्ण हिस्सा
  • भारतीय कृषि की समस्याएँ
    भारतीय कृषि की प्रमूख समस्याएँ निम्नलिखित है -
    1. सामाजिक समस्याएँ
      • सामाजिक वातावरण
      • भूमि पर जनसंख्या का दबाव
      • निर्वाहित कृषि
      • भूमि का अवक्रमण
      • फसलों का नुकसान
    2. संस्थागत समस्याएँ
      • सुधार की दोषपूर्ण प्रवृत्ति
      • साख व बाजार
      • साख व बाज़ार सुविधाओं का अभाव
      • जोतों का आकार
    3. तकनीकी समस्याएँ
      • उत्पादन की अप्रचलित तकनीक
      • सिंचाई सुविधाओं का अभाव
      • फसलों का अनुकरण
  • 1950-90 की अवधि के दौरान कृषि नीति
    1. भूमि सुधार
      • मध्यस्थों का उन्मूलन
      • लगान का नियमन
      • भू–सीमा का निर्धारण प्रयोग
      • जोतों की चकबंदी
      • सहकारी खेती
    2. प्रौद्योगिकी सुधार
      • HYVs का प्रयोग
      • रासायनिक खाद का प्रयोग
      • कीटनाशकों का प्रयोग में वृद्धि
    3. सामान्य सुधार
      • सिंचाई सुविधाओं का विस्तार
      • संस्थागत साख का प्रावधान
      • कृषि विपणन व्यवस्था में सुधार
      • कृषि मूल्य नीति
  • हरित क्रान्ति- भारत के संदर्भ में हरित क्रान्ति का तात्पर्य छठे दशक के मध्य में कृषि उत्पादन में उस तीव्र वृद्धि से है जो ऊँची उपज वाले बीजों (HYVS) एवं रासायनिक खादों व नई तकनीक के प्रयोग के फलस्वरुप है।
    हरित क्रान्ति की दो अवस्थाएँ-
    1. प्रथम अवस्था - 60 के दशक के मध्य से 70 के दशक के मध्य तक
    2. द्वितीय अवस्था - 70 के दशक के मध्य से 80 के दशक को मध्य तक
  • हरित क्रान्ति की विशेषताएँ
    1. उच्च पैदावार वाली किस्म के बीजों का प्रयोग (HYVS)
    2. रासायनिक उर्वरकों का उपयोग
    3. सिंचाई व्यवस्था (पर्याप्त सिचाई सुविधाओं का विकास)
    4. कीटनाशकों का उपयोग
  • हरित क्रान्ति को प्रभाव
    1. विक्रय अधिशेष की प्राप्ति।
    2. खाद्यान्नों का बफर स्टॉक
    3. निम्न आय वर्गों का लाभ
  • हरित क्रान्ति की सीमाएँ
    1. खाद्य फसलों तक सीमित
    2. सीमित क्षेत्र
    3. किसानों में असमानता
  • किसानों को आर्थिक सहायता
    कृषि सब्सिडी से तात्पर्य किसानों को मिलने वाली सहायता से है। दूसरे शब्दों में बाजार दर से कम दर पर किसानों को कुछ आगतों की पूर्ति करना।
    • पक्ष में तर्क
      1. भारत में अधिकांश किसान गरीब है। सब्सिडी के बिना वे आवश्यक आगतें नहीं खरीद पायेगें।
      2. आर्थिक सहायता को समाप्त कर देने पर अमीर व गरीब किसानों के मध्य असमानता बढ़ जाएगी।
    • विपक्ष में तर्क
      1. उच्च पैदावार देने वाली तकनीक का मुख्य रुप से बड़े किसानों को ही लाभ मिला। अतः अब कृषि सब्सिडी नहीं दी जानी चाहिए।
      2. एक सीमा के बाद, आर्थिक सहायता, संसाधनों के व्यर्थ उपयोग को बढ़ावा देती है।
  • उद्योग का महत्त्व
    • रोजगार सृजन
    • कृषि का विकास
    • प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग
    • श्रम की अधिक उत्पादकता
    • संवृद्धि के लिए अधिक क्षमता
    • निर्यात की अधिक मात्रा की कुंजी
    • आत्मनिर्भर विकास को उन्नत करता है
    • क्षेत्रीय संतुलन को बढ़ाता है।
  • औद्योगिक नीति 1956 - (भारत का औद्योगिक संविधान)
    विशेषताएँ
    1. उद्योगों का तीन श्रेणियों में वर्गीकरण:-
      1. प्रथम श्रेणी में वे 17 उद्योग रखे गए जिनकी स्थापना व विकास केवल सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के रुप में किया जाएगा।
      2. इस श्रेणी में वे 12 उद्योग रखे गए जिनकी स्थापना निजी व सार्वजनिक क्षेत्रों में की जाएगी किन्तु निजी क्षेत्र केवल गौण भूमिका निभाएगा।
      3. उपरोक्त i. और ii. श्रेणी के उद्योगों के अतिरिक्त अन्य सभी उद्योगों की निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिया गया।
    2. औद्योगिक लाइसेंसिंग- निजी क्षेत्र में उद्योगों को स्थापित करने के लिए सरकार से लाइसेंस लेना आवश्यक बना दिया।
    3. लघु उद्योगों का विकास।
    4. औद्योगिक शांति में कमी।
    5. तकनीकी शिक्षा व प्रशिक्षण।
  • सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका-
    1. मजबूत औद्योगिक आधार का सृजन।
    2. आधारभूत ढाँचे का विकास।
    3. पिछड़े क्षेत्रों का विकास।
    4. बचतों को गतिशील बनाना व विदेशी विनिमय के लिए।
    5. आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण को रोकने के लिए।
    6. आय व धन के वितरण में समानता बढ़ाने के लिए।
    7. रोजगार प्रदान करने के लिए।
    8. आयात प्रतिस्थापन को बढ़ावा देने के लिए।
  • लघस्तरीय उद्योगों की भूमिका
    1. श्रम प्रधान तकनीक
    2. स्व-रोजगार
    3. कम पूँजी प्रधान
    4. आयात प्रतिस्थापन
    5. निर्यात का बढ़ावा
    6. आय का समान वितरण
    7. उद्योगों का विकेन्द्रीकण
    8. बड़े स्तर के उद्योगों के लिए आधार
    9. कृषि का विकास
  • लघुस्तरीय उद्योगों की समस्याएँ
    1. वित्त की समस्याएँ
    2. कच्चे माल की समस्याएँ
    3. बाजार की समस्याएँ
    4. अप्रचलित मशीन व संयंत्र
    5. निर्यात क्षमता का अलप्र प्रयोग
    6. तानाशाही बाधाएँ
    7. बड़े स्तरीय उद्योगों से प्रतियोगिता
  • व्यापार नीति : आयात प्रतिस्थापन
    स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने आयात प्रतिस्थापन की नीति को अपनाया, जिसे अंतर्मुखी व्यापार नीति कहा जाता है। आयात प्रतिस्थापन्न से अभिप्राय घरेलू उत्पादन से आयातों को प्रतिस्थापित करने की नीति से है। सरकार ने दो तरीकों से भारत में उत्पादित वस्तुओं को आयात से संरक्षण दिया गया-
    1. प्रशुल्क - आयातित वस्तुओं पर लगाए जाने वाले कर।
    2. कोटा - इसका अभिप्राय घरेलु उत्पादक द्वारा एक वस्तु की आयात की जा सकने वाली अधिकतम सीमा को तय करने से होता है।
  • आयात प्रतिस्थापन को कारण
    1. भारत जैसे विकासशील राष्ट्रों के उद्योग इस स्थिति में नही हैं वे अधिक विकसित अर्थव्यवस्थाओं में उत्पादित वस्तुओं से प्रतियोगिता कर सके।
    2. महत्वपूर्ण वस्तुओं के आयात के लिए विदेशी मुद्रा बचाना।
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